करीब एक चौथाई GDP धड़ाम, जानें-आम आदमी के लिए क्या-क्या नुकसान?
कोरोना संकट की वजह से अप्रैल से जून की इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 23.9 फीसदी की ऐतिहासिक गिरावट आई है. यानी जीडीपी में करीब एक-चौथाई की कमी आ गई है. आइए जानते हैं कि जीडीपी की गिरावट यानी उसके निगेटिव में जाने का आखिर आम आदमी पर क्या असर पड़ता है?
पहली तिमाही में स्थिर कीमतों पर यानी रियल जीडीपी 26.90 लाख करोड़ रुपये की रही है, जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि में यह 35.35 लाख करोड़ रुपये की थी. इस तरह इसमें 23.9 फीसदी की गिरावट आई है. पिछले साल इस दौरान जीडीपी में 5.2 फीसदी की बढ़त हुई थी.
क्या होती है जीडीपी
किसी देश की सीमा में एक निर्धारित समय के भीतर तैयार सभी वस्तुओं और सेवाओं के कुल मौद्रिक या बाजार मूल्य को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) कहते हैं. यह किसी देश के घरेलू उत्पादन का व्यापक मापन होता है और इससे किसी देश की अर्थव्यवस्था की सेहत पता चलती है. इसकी गणना आमतौर पर सालाना होती है, लेकिन भारत में इसे हर तीन महीने यानी तिमाही भी आंका जाता है. कुछ साल पहले इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंकिंग और कंप्यूटर जैसी अलग-अलग सेवाओं यानी सर्विस सेक्टर को भी जोड़ दिया गया.
आर्थिक तरक्की का पैमाना
जीडीपी आर्थिक तरक्की और वृद्धि का पैमाना होती है. जब अर्थव्यवस्था मजबूत होती है तो बेरोजगारी कम रहती है. लोगों की तनख्वाह बढ़ती है. कारोबार जगत अपने काम को बढ़ाने के लिए और मांग को पूरा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों की भर्ती करता है.
बढ़ जाती है गरीबी
जीडीपी के आंकड़ों का आम लोगों पर काफी असर पड़ता है. अगर जीडीपी के आंकड़े लगातार सुस्त होते हैं तो ये देश के लिए खतरे की घंटी मानी जाती है. जीडीपी कम होने की वजह से लोगों की औसत आय कम हो जाती है और लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं.
जीडीपी रेट में गिरावट का सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों पर पड़ता है. भारत में आर्थिक असमानता बहुत ज्यादा है. इसलिए आर्थिक वृद्धि दर घटने का ज्यादा असर गरीब तबके पर पड़ता है. इसकी वजह यह है कि लोगों की औसत आय घट जाती है. नई नौकरियां पैदा होने की रफ्तार घट जाती है. मान लीजिए किसी तिमाही में प्रति व्यक्ति औसत आय 10 हजार रुपये महीने है तो जीडीपी में 24 फीसदी की गिरावट का मतलब है कि लोगों की औसत आय में 2400 रुपये की गिरावट आ गई और यह करीब 7600 रह गई.
होती है छंटनी, नई नौकरी नहीं मिलती
इसके अलावा नई नौकरियां पैदा होने की रफ्तार भी सुस्त पड़ जाती है. आर्थिक सुस्ती की वजह से छंटनी की आशंका बढ़ जाती है. वहीं लोगों की बचत और निवेश भी कम हो जाता है.
इंडिया टुडे हिंदी के संपादक अंशुमान तिवारी ने कहा, 'मार्च से अप्रैल तक बहुत लोगों की नौकरियां गई हैं. जीडीपी के गिरने से रोजगार के अवसर सीमित होते हैं. एक या दो फीसदी जीडीपी ग्रोथ घटने से भी रोजगार के अवसर कम होते हैं, लेकिन जीडीपी के कॉन्ट्रैक्शन में जाने या निगेटिव में जाने से तो नौकरियां ही खत्म हो जाती हैं. इससे संगठित और असंगठित क्षेत्र की करोड़ों नौकरियां चली गई हैं. अगली तिमाही में यह रिवाइज होगा यानी इसमें मंदी और गहरी दिखाई देगी.'
कम होता है निवेश
अंशुमान तिवारी ने कहा, 'जीडीपी गिरने से राजकोषीय घाटा बढ़ने का भी खतरा हो जाता है. यह एक बड़ा दुष्चक्र है.' इसके अलावा उद्योगपतियों, शेयर बाजार निवेशकों, कारोबारियों आदि की भी जीडीपी पर गहरी नजर रहती है और इसके डेटा के आधार पर वे आगे निवेश का फैसला करते हैं. जीडीपी में गिरावट का मतलब है कि कारोबारियों में भविष्य को लेकर संशय पैदा होगा और वे निवेश से हिचकेंगे. नए निवेश न होने से नई नौकरियों का सृजन नहीं होगा.
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